दिलीपस्य गो सेवा ( बेलवरिया )

 दिलीपस्य गो सेवा ( बेलवरिया )

                सहे कष्ट अपार, जंगल बीच मझारी।।
दोहा: एक नृपति थे अवध राज में, नाम दिलीप सुहाये।
बिना पुत्र के राजा रानी, के उर शोक समाये।।
बे0:         जिया घबराये, यह हमरी राज नसाये।
नहि है सन्तान, जीवन व्यर्थ हमारा।
सोचइ धरि ध्यान, बन की ओर सिधारा।।
गये गुरूवर के द्वार।। जंगल बीच मझारी।।
बनारसी: नाही बाटे एकउठी ललनवन हो, जिया मोरा घबराय।।
                दुइनउ जन पूजइ लागे, गुरू की चरनिया।
                पुत्र बिना दुखी होइके, बोले हैं बचनिया।
                सुत बिना तरसे नयनवन हो।। जिया मोरा घबराय।।
                हमका ललन बिना जिन तरसावा।
                हमरी अजोधिया के लजिया बचावा।।
                नही दइ देबइ हम परनवन हो।। जिया मोरा घबराय।।
दोहा: राजा का दिल दुःखी देखि के अरून्धती जी बोली।
हे स्वामी जी ध्यान से देखा, ज्ञान केवरिया खोली।।
बे0:         ललन एक दीजै, नृप की इच्छा पूरी कीजै।
गुरू जी धरि ध्यान कहइ बात मोरि माना।
होये पुत्र महान, उर अन्दर यह जाना।
यह गइया की जान, जबइ बचइ ही राजन।
तब पइहै कुमार।। जंगल बीच मझारी।।
बनारसी: नृप कहे गुरू के समनवा हो जिया मोरा घबराय।।
गऊ माँ की सेवा करबइ अति मन लाई।
चाहे मोरा जिअरा भले ही चला जाई।।
गऊ माँ के गहबै चरनवन हो।। जिआ मोरा घबराय।।
दोहा:         पहिले गाय चली बन ओरी पीछे नृप रहिआये।
एक अंधेरी गुफा की ओरी गइया रही सिधाये।।
बे0:          सिंह एक आया, गइया ऊपर पंजा चलाया।
         राजन घबराइ, कहइ गाय जिनि मारा।
                इनका द्या छोड़ि लइल्या मांस हमारा।।
         ले जनवा हमार।। जंगल बीच मझारी।।
बनारसी:   सिंह राजा लागी हम चरनवा हो।। जिआ मोरा घबराय।।
         झपटा है सिंह सुनिके राजा की बचनिया।
        नृपवर निछावर किहले सगरै बदनिया।।
         प्रभु जी का डिगा है असनवन हो।। जिया मोरा घबराय।।
दोहा:         दिलीप का यह त्याग देखि के सुरगण सुमन बहाये।
         मायावी वह शेर तुरत ही जंगल बीच हेराये।।
बे0:          प्रभू जी आये, राजन को धीर बधाये।
         हो पुत्र महान, यहि वर नृप को दीन्हा।
        इसका इजहार, खतम आर0 के0 कीन्हा।।
         प्रभु माया निहार।। जंगल बीच मझारी।।

         उलारा:      महाराजा दिलीप (2) पाये ललनवा सुन्दर।।


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