कजली: चक्रब्यूह रचना

कइले द्रोण गुरू तइयारी, चक्रब्यूह की रचना।।

खासा ब्यूह गुरू द्रोण रचाई, ज्ञान बुध्दि आपन फेलाई।

घेरा चारो तरफ लगाई, चार कोस की रही चौड़ाई।।

छलकर फाटक सात लगाई।। कह लम्बाई केतना।। कइले।।

जगह जगह बैठे धनुधारी, झंझट करने की तइयारी।

टरना नहि गुरू द्रोण तिखरी, गढ़ भये लिक बीच मझारी।।

डटि गये पहिले पर जयद्रथ कमर कसिके अपना।। कइले।।

ढ़िढ़ाई द्रोण गुरू अति कीन्हा, तब तो स्वर्ग हाथ मे लीन्हा।

थे हुशियार कोई ना चीन्हा, दुसरे फाटक पर मन दीन्हा।।

धनुष औ बाण को ले ललकोर, कहते रण से ना हटना।। कइले।।

निरखत रहे कर्ण जी सर, प्यारे तिसरे पर बेडर।

फरके भुजा संग लश्कर, बाण चलावइ एक नम्बर।।

भारी कृपाचार्य जी का मन, चौथे फाटक पर रहना।। कइले।।

मानो द्रोण पुत्र रणबंका, यारो दे पचवे पर डंका।

राखइ दिल मे जरा ना शंका, लड़िहइ बीर बहादुर वंका।।

वहि छटवे फाटक की बारी, जोहत भीष्म जी है कहना।। कइले।।

सतवे फाटक पर दुर्योधन, खुश होकर के रहे मगन।

सौ भाइन का कर के मोहन, हरि गुण गाओ मिलि सब ही जन।।

आर0 के0 आपन कलम बढ़ावा, दुश्मन से  तुमको सटना।।

 


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