कीर्तन: दादरा

शैर: घट मे है सूझै नही, लानत ऐसी जिंद।

तुलसी यह संसार को भयो है मोतियाबिंद।।

मृग नाभी कुण्डल बसै मृग ढ़ूढै बन माहि।

ऐसे घट घट ब्रम्ह है दुनिया जानत नाहि।।


निर्बल के प्राण पुकार रहे जगदीश हरे जगदीश हरे।।

आकाश हिमालय सागर मे, पृथ्वी पाताल चराचर मे।

यह मधुर बोल गुन्जार रहे।। जगदीश हरे जगदीश हरे।।

जब दया दृष्टि हो जाती है, जलती खेती हरियाली है।

इस आस पे जन उच्चार रहे।। जगदीश हरे जगदीश हरे।।

सुःख दुःख की है परवाह नही, भय है विश्वास ना जाए कही।

टूटे ना यह तार लगा रहे।। जगदीश हरे जगदीश हरे।।

तुम हो करूणा के धाम सदा, सेवक को देखो आप सदा।

इतना ही आर0 के0 सदा कहे।। जगदीश हरे जगदीश हरे।।


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