श्री राधा वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवत्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।। 2.22।।
श्री राधा न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किच्ञन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमंे न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।।3.22।।
श्री राधा श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।।3.35।।
Comments
Post a Comment