यदृच्दालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।

 श्री राधा


यदृच्दालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।


समः सिध्दावसिध्दौ च कृत्वापि न निबध्यते।।


जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा सन्तुष्ट रहता है, 

जिसमें ईष्र्याका सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा 

अतीत हो गया है-ऐसा सिध्दि और असिध्दिमें सम रहनेवाला कर्मयोगी कर्म 

करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।।4.22।।


Comments

Popular posts from this blog

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किच्ञन।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।