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सरस्वती बन्दना

 सरस्वती बन्दना  पग बन्दन करूँ कर जोर हो, आवा मइहर मयरिया।। ऊँचे पहड़वा पे तोहरा बसेरा। सुबह शाम लागे भगतवन का डेरा।। करते भजन चहुँ ओर हो, आवा मइहर मयरिया।। नहीं कुछ ज्ञान अहइ हमरे मयरिया। उतने पे छाई चहुँ ओर अधिअरिया।। दिलवा मे कइद्या अजोर हो, आवा मइहर मयरिया।। सद्बुध्दि देकरके कष्ट हरो माँ। सुनिये पुकार नही देर करो माँ।। मन लागे भक्ती मे मोर हो, आवा मइहर मयरिया।। जग सारा हरदम तोहार गुन गावे। आर0 के0 सदा पगमे नहिया लगावे।। पे्रम पवन बहे चहुँ ओर।। आवा मइहर मयरिया।।

परिवर्तन (गजल)

 परिवर्तन (गजल) अनोखा खेल इस जग को दिखाता रोज परिवर्तन। कहीं पर गम कहीं खुशियाँ दिखाता रोज परिवर्तन।। कहीं पर जन्म का उत्सव, मरण होता कहीं देखा। मिलन होता कहीं विछुड़न कराता रोज परिवर्तन।। अनोखा खेल।। कोई दौलत के विन रोता जहाँ के बीच रहकरके। किसीको धन की सइया पर सुलाता रोज परिवर्तन।। अनोखा खेल।। मान सम्मान पर मरते बहुत से बीर भारतमें। कहीं पर लोभी की काया बचाता रोज परिवर्तन।। अनोखा खेल।। नजर में आर0 के0 दिखते हो रहे रोज परिवर्तन। सूर्य चन्दा को दे किरणे बुझाता रोज परिवर्तन।। अनोखा खेल इस जग में.....।।

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

 श्री राधा तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः। छित्तवैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदयमें स्थित इस अज्ञानजनित अपने  संशयका विवेकज्ञानरूप तलवारद्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोगमें  स्थित हो जा और युध्दके लिये खड़ा हो जा।। 4.42।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानस´िछन्नसंषयम।

 श्री राधा योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानस´िछन्नसंषयम। आत्मवन्तं न कर्माणि निबन्धन्ति धनज्ञय।। हे धनज्ञय जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर  दिया है और जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है, ऐसे वशमें  किये हुए अन्तःकरणवाले पुरूषको कर्म नहीं बाँधते।। 4.41।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

 श्री राधा अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। विवेकहीन और श्रध्दारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता  है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख  ही है।।4.40।।

श्रध्दावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

 श्री राधा श्रध्दावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रध्दावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा  ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके - तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम  शान्तिको प्राप्त हो जाता है।।4.39।।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

 श्री राधा न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिध्दिः कालेनात्मनि विन्दति।। इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।  उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुध्दान्तःकरण हुआ मनुष्य  अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।।4.38।।