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Showing posts from April, 2023

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।

 श्री राधा तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः। छित्तवैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदयमें स्थित इस अज्ञानजनित अपने  संशयका विवेकज्ञानरूप तलवारद्वारा छेदन करके समत्वरूप कर्मयोगमें  स्थित हो जा और युध्दके लिये खड़ा हो जा।। 4.42।।

योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानस´िछन्नसंषयम।

 श्री राधा योगसन्न्यस्तकर्माणं ज्ञानस´िछन्नसंषयम। आत्मवन्तं न कर्माणि निबन्धन्ति धनज्ञय।। हे धनज्ञय जिसने कर्मयोगकी विधिसे समस्त कर्मोंका परमात्मामें अर्पण कर  दिया है और जिसने विवेकद्वारा समस्त संशयोंका नाश कर दिया है, ऐसे वशमें  किये हुए अन्तःकरणवाले पुरूषको कर्म नहीं बाँधते।। 4.41।।

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

 श्री राधा अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। विवेकहीन और श्रध्दारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थसे अवश्य भ्रष्ट हो जाता  है। ऐसे संशययुक्त मनुष्यके लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख  ही है।।4.40।।

श्रध्दावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।

 श्री राधा श्रध्दावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रध्दावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा  ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके - तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम  शान्तिको प्राप्त हो जाता है।।4.39।।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

 श्री राधा न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिध्दिः कालेनात्मनि विन्दति।। इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है।  उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुध्दान्तःकरण हुआ मनुष्य  अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।।4.38।।

यथैधांसि समिध्दोऽग्निर्भस्मसात्कुरूतेऽर्जुन।

 श्री राधा यथैधांसि समिध्दोऽग्निर्भस्मसात्कुरूतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूते तथा।। क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईधनोंको भस्ममय कर देता है, वैसे  ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्ममय कर देता है।।4.37।।

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

 श्री राधा अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः। सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि।। यदि तू अन्य सब पापियोंसे भी अधिक पाप करनेवाला है; तो भी तू  ज्ञानरूप नौकाद्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे भलीभाँति तर जायगा।। 4.36।।

यजात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।

 श्री राधा यजात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा तथा हे  अर्जुन! जिस ज्ञानके द्वारा तू सम्पूर्ण भूतोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें और  पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मामें देखेगा।।4.35।।

तद्विध्दि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

 श्री राधा तद्विध्दि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्तवदर्शिनः।। उस ज्ञानको तू तत्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको  भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कार  सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्वको भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी  महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।।4.34।।