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Showing posts from March, 2023

आरती श्री वृषभानु दुलारी की

आरती श्री वृषभानु दुलारी की जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय  जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय।।1।। जय स्वामिनि नन्दकुमार की जय अधाधुंध दरबार की जय जय स्वमिनि नन्दकुमार की जय अधाधुंध दरबार की जय जय अतिभोरी सुकुमार की जय करूणा की भंडार की जय जय अतिभोरी सुकुमार की जय करूणा की भंडार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय।।2।। जय महाभाव साकार की जय निराधार आधार की जय जय महाभाव साकार की जय निराधार आधार की जय जय दीनन की रखवार की जय पतितन की पतवार की जय जय दीनन की रखवार की जय पतितन की पतवार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अलवेली सरकार की जय।।3।। जय प्रेमरूप रससार की जय छवि सोरह शृंगार की जय जय प्रेमरूप रससार की जय छवि सोरह शृंगार की जय जय ममकृपालु सरकार की जय सखियन प्राणाधार की जय जय ममकृपालु सरकार की जय सखियन प्राणाधार की जय जय श्री वृषभानु दुलारी की जय अल

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।

 श्री राधा श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप। सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।। हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञकी अपेक्षा ज्ञानयज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है, तथा  यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं।।4.33।।

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।

 श्री राधा एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। कर्मजान्विध्दि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।। इसी प्रकार और भी बहुत तरहके यज्ञ वेदकी वाणीमें विस्तारसे कहे गये  हैं। उन सबको तू मन, इन्द्रिय और शरीरकी क्रियाद्वारा सम्पन्न होनेवाले जान,  इस प्रकार तत्वसे जानकर उनके अनुष्ठानद्वारा तू कर्मबन्धनसे सर्वथा मुक्त हो  जायगा।।4.32।।

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

 श्री राधा यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्। नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरूसत्तम।। हे कुरूश्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञसे बचे हुए अमृतका अनुभव करनेवाले योगीजन  सनातन परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं और यज्ञ न करनेवाले पुरूषके  लिये तो यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है, फिर परलोक कैसे  सुखदायक हो सकता है?।।4.31।।

अपाने जुहृति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

 श्री राधा अपाने जुहृति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रूद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।। अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुहृति। सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।। दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, वैसे  ही अन्य योगीजन प्राणवायुमें अपानवायुको हवन करते हैं तथा अन्य कितने  ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण पुरूष प्राण और अपानकी  गतिको रोककर प्राणोंको प्राणोंमें ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक  यज्ञोंद्वारा पापोंका नाश कर देनेवाले और यज्ञोंको जाननेवाले हैं।।4.29-30।।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।

 श्री राधा द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाच्श यतयः संशितव्रताः।। कर्ह पुरूष द्रव्यसम्बन्धी यज्ञ करनेवाले हैं, कितने ही तपस्यारूप यज्ञ  करनेवाले हैं तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करनेवाले हैं और कितने ही  अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतोंसे युक्त यत्नशील पुरूष स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करनेवाले  हैं।।4.28।।

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

 श्री राधा सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। आत्मसंयमयोगान्गौ जुहृति ज्ञानदीपिते।। दूसरे योगीजन इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको और प्राणोंकी समस्त  क्रियाओंको ज्ञानसे प्रकाशित आत्म-संयमायोगरूप अग्निमें हवन किया करते  हैं।।4.27।।

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुहृति।

 श्री राधा श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुहृति। शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियान्गिषु जुहृति।। अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियोंको संयमरूप अग्नियोंमें हवन  किया करते हैं और दूसरे योगीलोग शब्दादि समस्त विषयोंको इन्द्रियरूप  अन्गियोंमें हवन किया करते हैं।।4.26।।

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।

 श्री राधा दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहृति।। दूसरे योगीजन देवताओंके पूजनरूप यज्ञका ही भलीभाँति अनुष्ठान किया  करते हैं और अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्निमें अभेददर्शनरूप  यज्ञके द्वारा ही आत्मरूप यज्ञका हवन किया करते हैं।।4.25।।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्र्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।

 श्री राधा ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविब्र्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।। जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् स्त्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये  जानेयोग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति  देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है-उस ब्रह्मकर्ममें स्थित रहनेवाले योगीद्वारा प्राप्त  किये जानेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है।।4.24।।

गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

 श्री राधा गतसग्ङस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममतासे  रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्माके ज्ञानमें स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादनके लिये कर्म करनेवाले मनुष्यके सम्पूर्ण कर्म  भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।।4.23।।

यदृच्दालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।

 श्री राधा यदृच्दालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिध्दावसिध्दौ च कृत्वापि न निबध्यते।। जो बिना इच्छाके अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा सन्तुष्ट रहता है,  जिसमें ईष्र्याका सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा  अतीत हो गया है-ऐसा सिध्दि और असिध्दिमें सम रहनेवाला कर्मयोगी कर्म  करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।।4.22।।

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

 श्री राधा निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः। शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किन्बिषम्।। जिसका अन्तःकरण और इन्द्रियोंके सहित शरीर जीता हुआ है और  जिसने समस्त भोगोंकी सामग्रीका परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित  पुरूष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापोंको नहीं प्राप्त होता।। 4.21।।

त्यक्त्वा कर्मफलासग्ङं नित्यतृप्तो निराश्रयः।

 श्री राधा त्यक्त्वा कर्मफलासग्ङं नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किच्ञित्करोति सः।। जो पुरूष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग  करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह  कर्मोंमें भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता है।।4.20।।

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसक्ङल्पवर्जिताः।

 श्री राधा यस्य सर्वे समारम्भाः कामसक्ङल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्रिदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।। जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं  तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस  महापुरूष को ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।।4.19।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

 श्री राधा कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुध्दिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्ममें कर्म देखता है, वह  मनुष्योंमें बुध्दिमान् है और वह योगी समस्त कर्मोंको करनेवाला है।।4.18।।

कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणः।

 श्री राधा कर्मणो ह्यपि बोध्दव्यं बोध्दव्यं च विकर्मणः। अकर्मणच्श बोध्दव्यं गहना कर्मणो गतिः।। कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्मका स्वरूप भी जानना  चाहिये तथा विकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन  है।।4.17।।
 श्री राधा किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यजात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। कर्म क्या हैं? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें  बुध्दिमान् पुरूष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्व मैं तुझे  भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धनसे  मुक्त हो जायगा।।4.16।।

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।

 श्री राधा एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः। कुरू कर्मैव तस्मात्वं पूवैः पूर्वतरं कृतम्।। पूर्वकालमें मुमुक्षुओंने भी इस प्रकार जानकर ही कर्म किये हैं। इसलिये तू  भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये जानेवाले कर्मोंको ही कर।।4.15।।

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

 श्री राधा न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।। कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते-इस  प्रकार जो मुझे तत्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।।4.14।।

चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

 श्री राधा चातुर्वण्र्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विध्दयकर्तामव्ययम्।। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चार वर्णोंका समूह, गुण और कर्मोंके  विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका  कर्ता होनेपर भी मुझ अविनाशी परमेश्वरको तू वास्तवमें अकर्ता ही जान।। 4.13।।

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिध्दिं यजन्त इह देवताः।

 श्री राधा काङ्क्षन्तः कर्मणां सिध्दिं यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिध्दिर्भवति कर्मजा।। इस मनुष्यलोकमें कर्मांेके फलको चाहनेवाले लोग देवताओंका पूजन  किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिध्दि शीघ्र मिल  जाती है।।4.12।।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

 श्री राधा ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं मैं भी उनको उसी प्रकार  भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते  हैं।।4.11।।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।

 श्री राधा वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः। बहवो ज्ञानतपसा पूता मभ्दावमागताः।। पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये थे और जो मुझमें  अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे, ऐसे मेरे आश्रित रहनेवाले बहुत-से भक्त  उपर्युक्त ज्ञानरूप तपसे पवित्र होकर मेरे स्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं।।4.10।।

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।

 श्री राधा जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।। हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं-इस  प्रकार जो मनुष्य तत्वसे जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको  प्राप्त नहीं होता, किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है।।4.9।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

 श्री राधा परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। साधु पुरूषोंका उध्दार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश  करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मै युग-युगमें  प्रकट हुआ करता हूँ।।4.8।।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

 श्री राधा यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृध्दि होती है, तब-तब ही  मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता  हूँ।।4.7।।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीव्शरोऽपि सन्।

 श्री राधा अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीव्शरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया।। मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका  ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट  होता हूँ।।4.6।।

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

 श्री राधा बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।। श्रीभगवान् बोले-हे परंतप अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं।  उन सबको तू नहीं जानता, किन्तु मैं जानता हूँ।।4.5।।

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

 श्री राधा अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः। कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। अर्जुन बोले- आपका जन्म तो अर्वाचीनअभी हालका है और सूर्यका जन्म  बहुत पुराना है अर्थात् कल्पके आदिमें हो चुका था; तब मैं इस बातको कैसे  समझूँ कि आपहीने कल्पके आदिमें सूर्यसे यह योग कहा था?।।4.4।।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः

 श्री राधा स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको  कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखनेयोग्य विषय  है।।4.3।।

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।

श्री राधा एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।। हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परम्परासे प्राप्त इस योगको राजर्षियोंने जाना;  किन्तु उसके बाद वह योग बहुत कालसे इस पृथ्वीलोकमें लुप्तप्राय हो गया।। 4.2।।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।

 श्री राधा इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्। श्रीभगवान् बोले-मैंने इस अविनाशी योगको सूर्यसे कहा था, सूर्यने अपने  पुत्र वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकुसे कहा।।4.1।।

एवं बुध्देः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

 श्री राधा एवं बुध्देः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।। इस प्रकार बुध्दिसे पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान् और अत्यन्त श्रेष्ठ  आत्माको  जानकर और बुध्दिके द्वारा मनको वशमें करके हे महाबाहो! तू इस  कामरूप  दुर्जय शत्रुको मार डाल।।3.43।।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

 श्री राधा इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्देः परतस्तु सः।। इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन  इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुध्दि है और जो बुध्दिसे भी अत्यन्त पर है  वह आत्मा है।।3.42।।

तस्मात्तवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

 श्री राधा तस्मात्तवमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।। इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियोंको वशमें करके इस ज्ञान और  विज्ञानका नाश करनेवाले महान् पापी कामको अवश्य ही बलपूर्वक मार  डाल।।3.41।।

इन्द्रियाणि मनो बुध्दिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

 श्री राधा इन्द्रियाणि मनो बुध्दिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। इन्द्रियाँ, मन और बुध्दि-ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम  इन मन, बुध्दि और इन्द्रियोंके द्वारा ही ज्ञानको आच्छादित करके जीवात्माको  मोहित करता है।।3.40।।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

 श्री राधा आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।। और हे अर्जुन! इस अग्निके समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप  ज्ञानियोंके नित्य वैरीके द्वारा मनुष्यका ज्ञान ढ़का  हुआ है।।3.39।।

धूमेनाव्रियते वन्हिर्यथादर्शो मलेन च।

 श्री राधा धूमेनाव्रियते वन्हिर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।। जिस प्रकार धूएँसे अग्नि और मैलसे दर्पण ढ़का जाता है तथा जिस प्रकार  जेरसे गर्भ ढ़का रहता है, वैसे ही उस कामके द्वारा यह ज्ञान ढ़का रहता है।। 3.38।।

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुभ्दवः।

 श्री राधा काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुभ्दवः। महाशनो महापाप्मा विध्दयेनमिह वैरिणम्।। श्रीभगवान् बोले-रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत  खानेवाला अर्थात् भोगोंसे कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू  इस विषयमें वैरी जान।।3.37।।

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः।

 श्री राधा अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरूषः। अनिच्छन्नपि वाष्र्णेय बलादिव नियोजितः।। अर्जुन बोले-हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्  लगाये हुएकी भाँति किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता हैं?।।3.36।।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

 श्री राधा श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। अच्छी प्रकार आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।।3.35।।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

 श्री राधा इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।। इन्द्रिय-इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष  छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्योंको उन दोनों ही इसके कल्याणमार्गमें विन्घ  करनेवाले महान् शत्रु हैं।।3.34।।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि।

 श्री राधा सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए  कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्ठा करता है। फि इसमें  किसीका हठ क्या करेगा?।।3.33।।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

 श्री राधा ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्। सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विध्दि नष्टानचेतसः।। परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मतके अनुसार नहीं  चलते हैं, उन मूर्खोंको तू सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और नष्ट हुए ही समझ।।3.32।।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

 श्री राधा ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। श्रध्दावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः।। जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रध्दायुक्त होकर मेरे इस मतका  सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं।।3.31।।

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।

 श्री राधा मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। मुझ अन्तर्यामी परमात्मामें लगे हुए चित्तद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें  अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर युध्द कर।। 3.30।।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।

 श्री राधा प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।। प्रकृतिके गुणोंसे अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणोंमें और कर्मोंमें आसक्त  रहते हैं, उन पूर्णतया न समझनेवाले मन्दबुध्दि अज्ञानियोंको पूर्णतया  जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे।।3.29।।

तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।

 श्री राधा तत्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।। परन्तु हे महाबाहो! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जाननेवाला  ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं, ऐसा समझकर  उनमें आसक्त  नहीं होता।।3.28।।

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

 श्री राधा प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहक्ङारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो  भी जिसका अन्तःकरण अहक्ङारसे  मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता  हूँ‘ ऐसा मानता है।।3.27।।

न बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसग्ङिनाम्।

 श्री राधा न बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसग्ङिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।। परमात्माके स्वरूपमें अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरूषको चाहिये कि वह  शास्त्रविहित कर्मोंमें आसक्तिवाले अज्ञानियोंकी बुध्दिमें भ्रम अर्थात् कर्मोंमें  अश्रध्दा उत्पन्न न करे। किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता  हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।।3.26।।

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

 श्री राधा सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तच्शिकीर्षुलोकसङ्ग्रहम्।। हे भारत! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं,  आसक्तिरहित विद्वान् भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म  करे।।3.25।।

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।

 श्री राधा उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। सक्ङरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।। इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं  संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।। 3.24।।

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।

 श्री राधा यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोमें न बरतूँ तो बड़ी  हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते  हैं।।3.23।।

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किच्ञन।

 श्री राधा न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किच्ञन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।। हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमंे न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी  प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।।3.22।।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

 श्री राधा यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।। श्रेष्ठ पुरूष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरूष भी वैसा-वैसा ही  आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय  उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।।3.21।।

कर्मणैव हि संसिध्दिमास्थिता जनकादयः।

 श्री राधा कर्मणैव हि संसिध्दिमास्थिता जनकादयः। लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।। जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्मद्वारा ही परम सिध्दको प्राप्त  हुए थे। इसलिये तथा लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू कर्म करनेके ही योग्य है  अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।।3.20।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

 श्री राधा तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरूषः।। इसलिये तू निरन्तर आसक्तिसे रहित होकर सदा कर्तव्यकर्मको  भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्तिसे रहित होकर कर्म करता हुआ  मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।।3.19।।

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कच्शन।

 श्री राधा नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कच्शन। न चास्य सर्वभूतेषु कच्शिदर्थव्यपाश्रयः।। उस महापुरूषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न  कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी  इसका किच्ञिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।।3.18।।

यस्तवात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तच्श मानवः।

 श्री राधा यस्तवात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तच्श मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।। परन्तु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा  आत्मामें ही सन्तुष्ट हो, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।।3.17।।

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।

 श्री राधा एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।। हे पार्थ! जो पुरूष इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके  अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह  इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापायु पुरूष व्यर्थ ही जीता है।। 3.16।।

अन्नाभ्दवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

 श्री राधा अन्नाभ्दवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाभ्दवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुभ्दवः।। कर्म ब्रह्मोभ्दवं विध्दि ब्रह्माक्षरसमुभ्दवम्। तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नकी उत्पत्ति वृष्टिसे होती है, वृष्टि  यज्ञसे होती है और यह विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदायको तू  वेदसे उत्पन्न और वेदको अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे  सिध्दि होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित  है।।3.14-15।।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।

 श्री राधा यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः। भुज्ञते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।। यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरूष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं  और जो पापीलोग अपना शरीर-पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो  पापको ही खाते हैं।।3.13।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।

 श्री राधा इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।। यज्ञके द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुमलोगोंको बिना माँगे ही इच्छित भोग  निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंके द्वारा दिये हुए भोगोंको जो  पुरूष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है।।3.12।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

श्री राधा देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।। तुमलोग इस यज्ञके द्वारा देवताओंको उन्नत करो और वे देवता  तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नत करते  हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे।।3.11।।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्व्टा पुरोवाच प्रजापतिः।

 श्री राधा सहयज्ञाः प्रजाः सृष्व्टा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। प्रजापति ब्रह्माने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा  कि तुमलोग इस यज्ञके द्वारा वृध्दिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुमलोगोंको  इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो।।3.10।।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धः।

 श्री राधा यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसग्ङः समाचर।। यज्ञके निमित्त किये जानेवाले कर्मोंसे अतिरिक्त दूसरे कर्मोंमें लगा हुआ  ही यह मनुष्यसमुदाय कर्मोंसे बँधता है। इसलिये हे अर्जुन! तू आसक्तिसे  रहित होकर उस यज्ञके निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्यकर्म कर।।3.9।।

नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

 श्री राधा नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्दयेदकर्मणः।। तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर; क्योंकि कर्म न करनेकी अपेक्षा कर्म  करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करनेसे तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिध्द होगा।। 3.8।।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

 श्री राधा यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।। किन्तु हे अर्जुन! जो पुरूष मनसे इन्द्रियोंको वशमें करके अनासक्त हुआ  समस्त इन्द्रियोंद्वारा कर्मयोगका आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।।3.7।।

कर्मन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

 श्री राधा कर्मन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।। जो मूढ़बुध्दि मनुष्य समस्त इन्द्रियोंको हठपूर्वक ऊपरसे रोककर मनसे  उन इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी  कहा जाता है।।3.6।।

न हि कच्शित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।

 श्री राधा न हि कच्शित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।। निःसन्देह कोई भी मनुष्य किसी भी कालमें क्षणमात्र भी बिना कर्म किये  नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्यसमुदाय प्रकृतिजनित गुणोंद्वारा परवश हुआ  कर्म करनेके लिये बाध्य किया जाता है।।3.5।।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कम्र्यं पुरूषोऽन्शुते।

श्री राधा न कर्मणामनारम्भान्नैष्कम्र्यं पुरूषोऽन्शुते। न च सन्नयसनादेव सिध्दं समधिगच्छति।। मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना निष्कर्मताको यानी  योगनिष्ठाको प्राप्त होता है और न कर्मोंके केवल त्यागमात्रसे सिध्दि यानी  सांख्यनिष्ठाको ही प्राप्त होता है।।3.4।।

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।

श्री राधा लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।। श्रीभगवान् बोले-हे निष्पाप! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले  कही गयी है। उनमेंसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा तो ज्ञानयोगसे और योगियोंकी  निष्ठा कर्मयोगसे होती है।।3.3।।

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।

 श्री राधा व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।  तदेकं वद निच्शित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।। आप मिले हुए-से वचनोंसे मेरी बुध्दिको मानो मोहित कर रहे हैं। इसलिये  उस एक बातको निश्चित करके कहिये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो  जाऊँ।।3.2।।

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुध्दिर्जनार्दन।

 श्री राधा ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुध्दिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।। अर्जुन बोले- हे जनार्दन! यदि आपको कर्मकी अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो  फिर हे केशव! मुझे भयक्ङर कर्ममें क्यों लगाते हैं?।।3.1।।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।

 श्री राधा एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्दति।। हे अर्जुन! यह ब्रह्मको प्राप्त हुए पुरूषकी स्थिति है, इसको प्राप्त होकर  योगी कभी मोहित नहीं होता और अन्तकालमें भी इस ब्राह्मी स्थितिमें स्थित  होकर ब्रह्मानन्दको प्राप्त हो जाता है।।2.72।।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांच्शरति निःस्पृहः।

 श्री राधा विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांच्शरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहक्ङारः स शान्तिमधिगच्छति।। जो पुरूष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित,  और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह  शान्तिको प्राप्त है।।2.71।।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठंसमुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।

 श्री राधा आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठंसमुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमान्पोति न कामकामी।। जैसे नाना नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें  उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस  स्थितप्रज्ञ पुरूषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं,  वही पुरूष परमशान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहलेवाला नहीं।।2.70।।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

 श्री राधा या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये जो रात्रिक समान है, उस नित्य ज्ञानस्वरूप  परमानन्दकी प्राप्तिमें स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और जिस नाशवान् सांसारिक  सुखकी प्राप्तिमें सब प्राणी जागते हैं, परमात्माके तत्वको जाननेवाले मुनिके  लिये वह रात्रिके समान है।2.69।।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।

 श्री राधा तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरूषकी इन्द्रियाँ इन्द्रियोंके विषयोंसे सब  प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसीकी बुध्दि स्थिर है।।2.68।।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।

 श्री राधा इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।। क्योंकि जैसे जलमें चलनेवाली नावको वायु हर लेती है, वैसे ही विषयोंमें  विचरती हुई इन्द्रियोंमेंसे मन जिस इन्द्रियके साथ रहता है वह एक ही इन्द्रिय  इस अयुक्त पुरूषकी बुध्दिको हर लेती है।।2.67।।

नास्ति बुध्दिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।

  श्री राधा नास्ति बुध्दिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना। न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। न जीते हुए मन और इन्द्रियोंवाले पुरूषमें निश्चयात्मिका बुध्दि नहीं होती  और उस अयुक्त मनुष्यके अन्तःकरणमें भावना भी नहीं होती तथा  भावनाहीन मनुष्यको शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्यको सुख  कैसे मिल सकता है?।।2.66।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

 श्री राधा प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते। प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुध्दिः पर्यवतिष्ठते।। अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है  और उस प्रसन्नचित्तवाले कर्मयोगीकी बुध्दि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक  परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।।2.65।।